पश्चिम बंगाल के कुर्मी समुदाय की मांग है कि उनके सरना धर्म को मान्यता दी जाए, उनकी कुरमाली भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया जाए और आदिवासी के रूप में उनकी मान्यता बहाल की जाए.
पिछले एक सप्ताह से पश्चिम बंगाल के कुर्मी समुदाय ने व्यापक आंदोलन छेड़ रखा है. उनकी तमाम मांगें हैं. कुछ राज्य सरकार से जुड़ी हैं. कुछ केंद्र सरकार से जुड़ी हैं. अपनी मांगों को लेकर वह रेल पटरियों पर बैठे रहे और धरना प्रदर्शन करते रहे. लंबे समय से चल रहा यह आंदोलन चर्चा में नहीं है.
क्या हैं कुर्मी समुदाय की मांगें
कुर्मी समुदाय सरना धर्म को मानते हैं. उनकी मांग है कि सरना धर्म को मान्यता दी जाए. साथ ही वह झारखंड, ओडिशा, छोटा नागपुर पठार और पश्चिम बंगाल में बोली जाने वाली कुरमाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराना चाहते हैं, जिससे उनकी भाषा को अलग पहचान मिल सके. साथ ही कुर्मी समुदाय का कहना है कि उनकी स्थिति अनुसूचित जनजाति के करीब है, इसलिए इन इलाकों में उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाना चाहिए.
आंदोलन का कितना असर
विभिन्न जगहों पर 5 अप्रैल से चल रहे इस आंदोलन के कारण सैकड़ों एक्सप्रेस और पैसेंजर ट्रेनों को रद्द करना पड़ा. दक्षिण-पूर्वी रेलवे के आंकड़ों के मुताबिक 5 अप्रैल से 2 रेलवे स्टेशनों पर पटरी बाधित किए जाने कर वजह से करीब 500 एक्सप्रेस और पैसेंजर ट्रेन रद्द की गईं. पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड से देश में विभिन्न स्थानों पर जाने वाली कई सुपरफास्ट और एक्सप्रेस ट्रेन रद्द कर दी गईं। जिन ट्रेनों को रद्द किया गया है उनमें नई दिल्ली-भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस, हावड़ा-पुणे-हावड़ा दूरंतो एक्सप्रेस, हावड़ा-अहमदाबाद एक्सप्रेस, हावड़ा-मुंबई-हावड़ा मेल और अलप्पुझा-धनबाद एक्सप्रेस शामिल हैं.
कुस्तौर में आई थोड़ी शांति
कुर्मी समाज ने आंदोलन के पांचवें दिन 9 अप्रैल 2023 को पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में कुस्तौर रेलवे स्टेशन के पास रेलपटरियों पर से अपना धरना-प्रदर्शन समाप्त कर दिया. वहीं पश्चिम मेदिनीपुर जिले के खेमाशुलि में रेलमार्ग इस दिन भी बाधित रहा. अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ रेलमार्ग पर बैठे कुर्मी नेता अजीत महतो ने कहा कि फिलहाल किस्तौर में आंदोलन वापस लिया जा रहा है लेकिन नेतृत्व के बीच चर्चा के बाद भविष्य में उसे तेज किया जा सकता है। महतो ने कहा कि हमारी मांगें नहीं मानी गई हैं, लेकिन हम फिलहाल आंदोलन वापस ले रहे हैं. उधर खेमाशुली में प्रदर्शनकारियों ने कहा कि वे आंदोलन को जारी रखने के संबंध में अपने नेतृत्व के निर्देश का इंतजार कर रहे हैं.
पहले भी हो चुका है आंदोलन
इन इलाकों में तमाम छोटे छोटे कुर्मी संगठन हैं. कभी कोई आंदोलन करता है, तो कभी कोई संगठन सरकार से समझौते कर लेता है. लेकिन इनके आंदोलनों पर न तो विचार होता है, न इनकी खबरें बनती हैं. इन संगठनों ने अपनी ऐसी ही मांगों को लेकर सितंबर 2022 में भी आंदोलन किया था. खासकर इन 2 स्टेशनों पर रेलमार्ग करीब एक हफ्ते तक बाधित रहा था.
सरकार के साथ होगी बैठक
कुर्मी नेताओं ने राज्य के कुछ हिस्सों से रेल नाकेबंदी वापस ले ली और राष्ट्रीय राजमार्ग 6 से अवरोध हटा लिए.राज्य सरकार के एक अधिकारी के मुताबिक 10 अप्रैल 2023 को पश्चिम मेदिनीपुर जिले के खेमासुली में सड़क नाकेबंदी में ढील देने का फैसला राज्य सरकार द्वारा ‘कुर्मी समाज पश्चिम बंगाल’ के पदाधिकारियों को एक पत्र भेजे जाने के बाद लिया गया, जिसमें उन्हें 11 अप्रैल को दोपहर में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया गया है.
‘कुर्मी समाज पश्चिम बंगाल’ के अध्यक्ष राजेश महतो ने बताया कि 11 अप्रैल को राज्य सरकार के साथ निर्धारित बैठक के समापन तक यह ढील लागू रहेगी.
कौन हैं कुर्मी समाज के यह लोग
सामान्यतया कुर्मी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) माना जाता है. वहीं तमाम राज्यों में कुर्मियों की स्थिति अलग है. महाराष्ट्र में शिवाजी के वंशज खुद को मराठा कहते हैं, जिन्हें ओबीसी में नहीं रखा गया है और वह ओबीसी में शामिल होने के लिए आंदोलित रहते हैं. वहीं गुजरात में पटेल को आरक्षण नहीं मिलता, जबकि उन्हीं के भाई बंधुओं को मध्य प्रदेश में ओबीसी में आरक्षण मिलता है. गुजरात का पटेल समाज भी समय समय पर ओबीसी आरक्षण के लिए आंदोलन करता रहा है.
झारखंड के छोटा नागपुर पठार से लेकर पश्चिम बंगाल और ओडिशा में फैले कुर्मी को स्थानीय उच्चाऱण में कुड़मी कहा जाता है. यह आदिवासी बहुल इलाका है और आरक्षण से आदिवासियों का जीवन स्तर सुधरा है. कुर्मी समाज के लोगों का कहना है कि इस इलाके को आदिवासी इलाका घोषित किया जाना चाहिए, जिससे वहां रह रहे सभी लोगों को अनुसूचित जनजाति आरक्षण का लाभ मिल सके, जैसा कि देहरादून के चकराता के इलाके में नौटियाल ब्राह्मणों सहित हर जाति के लोगों को आरक्षण मिला हुआ है.
और क्या हैं कुड़मी लोगों के तर्क
कुर्मी समाज के इन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि ब्रिटिश काल में 1931 की एसटी लिस्ट में वे शामिल थे. आजादी के 3 साल बाद 1950 तक उन्हें आदिवासी माना गया. उसके बाद उनकी जाति को एसटी से निकाल दिया गया. बाद में उन्हें ओबीसी में शामिल कर लिया गया. अब उनकी मांग है कि उन्हें आदिवासी माना जाए.
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