Hospitals in Gorakhpur का बुरा हाल, प्रशासन भी कुछ कर पाने की हालत में नहीं.
गोरखपुर में अस्पतालों का बुरा हाल है. सरकार ने नियम बना रखे हैं कि एक डॉक्टर के नाम अधिकतम 2 अस्पताल चल सकते हैं, वह भी दोनों अस्पताल के बीच की दूरी 30 किलोमीटर से ज्यादा न हो. वहीं गोरखपुर में ऐसे ऐसे डॉक्टर हैं, जिनके नाम 7-7 अस्पताल चलते हैं. डॉक्टर वहां कभी जाते नहीं हैं. पंजीकरण के लिए उन्होंने अपनी डिग्रियां किराये पर लगा रखी हैं.
इसके अलावा जिन डॉक्टरों की डिग्रियां असली हैं, कागजात सही हैं, उनके भी यहां इलाज का बुरा हाल है. प्रशासन इस हालत में नहीं है कि कुछ कदम उठाए, क्योंकि ज्यादातर अस्पतालों का उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया है और तकरीबन हर अस्पताल पर योगी और मोदी की फोटो चमक रही है.
क्या है अस्पतालों का फर्जीवाड़ा
जिले के भटहट कस्बे का एक मसला सामने आया. सत्यम नर्सिंग होम में डॉक्टर सुनील कुमार सरोज ने किराये पर अपनी डिग्री दे रखी थी. इस अस्पताल में एक झोलाछाप डॉक्टर इलाज करता था. इलाज के दौरान एक गर्भवती महिला की मौत हो गई. उसके परिजनों ने हंगामा काटा. थाने में एफआईआर करा दी. उसके बाद गोरखपुर के सीएमओ ने जांच के आदेश दिए. डिप्टी सीएमओ डॉ अनिल कुमार सिंह ने कई अस्पतालों की जांच की और पाया कि अस्पतालों में तरह तरह की अनियमितताएं हैं.
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बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां
मामले की जांच के बाद पाया गया कि 153 डॉक्टर ऐसे हैं, जिनके नाम पर 355 नर्सिंग होम, डॉयग्नोस्टिक सेंटर और क्लीनिक चल रहे हैं. सभी ने पूर्णकालिक के रूप में अपना पंजीकरण करा रखा है. किसी के नाम पर 7, किसी के नाम 5 सेंटर चल रहे हैं.
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डायग्नोस्टिक सेंटर में सबसे ज्यादा फर्जीवाड़ा
जांच के नाम पर नर्सिंग होम में सबसे ज्यादा लूटपाट की जाती है. हर अस्पताल में खून की जांच, अल्ट्रासाउंट और एक्सरे की व्यवस्था है. ज्यादातर अस्पतालों में डॉक्टर नहीं बैठते. लैब टेक्नीशियन होते हैं, जो ब्लड सैंपल लेकर तरह तरह के महंगे टेस्ट करते हैं और रिपोर्ट छापकर दे देते हैं. यही हाल एक्सरे का है. अस्पतालों में स्पेशलिस्ट डॉक्टर नहीं होते. मशीन और टेक्नीशियन होते हैं. एक्सरे की फिल्म निकाली जाती है और रिपोर्ट व फिल्म मरीज को दे दी जाती है.
यह कोई अनोखी बात नहीं है. अगर जिले का जिलाधिकारी, एसएसपी या सीएमओ किसी अस्पताल में आम नागरिक की तरह जाए खुद को बीमार बताए तो उसकी जांच शुरू हो जाएगी. उसका ब्लड, यूरीन का सैंपल लिया जाएगा और उसका एक्सरे हो जाएगा. आधे घंटे की मेहनत में वह अपनी आंखों से देख सकता है कि किस तरह से रिपोर्ट तैयार करके तत्काल दे दी जाती है. अस्पताल में उस विधा का कोई डॉक्टर मौजूद नहीं होता है. जबकि ब्लड टेस्ट या एक्सरे का शुल्क किसी दिल्ली मुंबई के पांच सितारा डायग्नोस्टिक सेंटर को मात करता है.
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बीमारी कुछ भी, इलाज एक ही

गोरखपुर के किसी अस्पताल में आप रात 10 बजे इलाज कराने पहुंचें. यहां की दुर्दशा का अहसास आपको हो जाएगा. उस अस्पताल में एक भी डिग्रीधारी डॉक्टर नहीं मिलेगा. कोई भी युवा या अधेड़ आला लटकाए बैठा मिल सकता है. मरीज उस कथित मेडिकल प्रैक्टिसनर से खुद को दिखाता है. आपको बीमारी चाहे कुछ भी हो, वह इलाज शुरू कर देता है.
इलाज में सबसे पहले इमरजेंसी में एक टीं-टीं करते स्क्रीन पर आपकी उंगली में एक क्लच लगाई जाती है. ब्लडप्रेशर वाला पट्टा हाथ में बांध दिया जाता है. मशीन की आवाज चलनी शुरू हो जाती है. उसके बाद नेबुलाइजर, फेफड़े में ऑक्सीजन देने की पाइप मंगाई जाती है. बोतल का पानी चढ़ाने के लिए पाइप मंगाई जाती है. ग्लब्स वगैरा मंगाए जाते हैं. इतने की कीमत करीब 2,500 रुपये हो जाती है. इस दौरान दवा के नाम पर पैरासीटामॉल, मल्टीविटामिन चढ़ाया जाता है. पेशेंट को अगर उल्टी हुई है तो उसके लिए उल्टी की दवा चढ़ा दी जाती है. इसके अलावा सीबीसी, केएफटी, एलएफटी की रिपोर्ट रात में ही वही डॉक्टर निकलवा लेते हैं. एक्सरे तो तत्काल नहीं हो पाता, लेकिन हृदय की जांच की मशीन तत्काल पहुंचती है और वह आड़ी तिरछी रेखाओं वाले ग्रॉफिक्स निकाल देती है. सुबह 10 बजते बजते आपका एक्सरे भी हो जाता है.
ध्यान रहे कि इस दौरान कोई डॉक्टर नहीं आता. आपको सिरदर्द है, सीने में दर्द है, उल्टी आ रही है, सिर चक्कर खा रहा है, ठंड लग गई है, हल्का फुल्का बुखार हो गया है. कोई भी बीमारी हो, इसका इलाज एक ही है. जब पेशेंट को इस अवस्था में बेड पर लिटा दिया जाता है तो 5 घंटे अस्पताल में रोक लेने का बिल करीब 10,000 रुपये बन जाता है.
कोई भी कर सकता है इसकी पुष्टि
यह कोई गंभीर जांच का मसला नहीं है, जिसकी जानकारी के लिए सीबीआई, ईडी लगानी पड़े या कोई जांच दल बनाना पड़े. मुख्यमंत्री को तो भगवा गेरुआ और कई दशक से सांसद होने के कारण सभी जानते हैं, लेकिन अगर कोई जिलाधिकारी, एसएसपी, सीएमओ या उत्तर प्रदेश के चिकित्सा मंत्री आम इंसान की तरह सर पकड़े और पेट पकड़े रात के 12 बजे किसी अस्पताल में चले जाएं तो उनके इलाज की प्रक्रिया ठीक यही होगी. बगैर किसी चिकित्सक के आपका पूरा इलाज हो जाएगा. सारी रिपोर्ट तैयार हो जाएंगी. एक्सरे, ईको, अल्ट्रासाउंड हो जाएगा. और अगर आप कुछ ठीक महसूस कर रहे हैं, आपका पेटदर्द और सिरदर्द ठीक हो गया है तो आपको 10,000 रुपये का बिल थमाकर सुबह घर भेज दिया जाएगा.
अगर सचमुच कोई गंभीर बीमारी है
अगर किसी को सचमुच गंभीर बीमारी है तो छोटे अस्पताल 24 घंटे तक आपका उपचार करेंगे. उतने में 10 से 15 हजार रुपये का बिल बन चुका होता है. उस दौरान कोई शिक्षित एमबीबीएस या एमडी डॉक्टर बुलाया जाता है और वह देखेगा. बहुत गंभीर बीमारी निकलने पर आपको जिला अस्पताल या मेडिकल कॉलेज भेज दिया जाएगा. अगर गंभीर बीमारी नहीं है और एकाध हफ्ते रोकने लायक केस है तो एकाध हफ्ते रोककर 2 लाख रुपये का बिल बना दिया जाता है. ऑपरेशन के केसेज निकले, तब तो आर्थिक लूट का अलग ही किस्सा बन जाता है.
गोरखपुर के करीब हर अस्पताल पर चमक रहा योगी का चेहरा

पिछले कुछ वर्षों में गोरखपुर में जितने भी कथित रूप से ठीक-ठाक अस्पताल खुले हैं, वहां योगी आदित्यनाथ का चेहरा चमक रहा है. उसका उद्घाटन योगी आदित्यनाथ ने किया हुआ होता है. वह चाहे जिले के नामी गिरामी सर्जन रवि रॉय का रचित अस्पताल हो, या भाजपा सांसद की शेयरधारिता वाला सिटी हॉस्पिटल हो, या हाल ही में खुला अभिज्ञा हॉस्पिटल. जिन अस्पतालों ने योगी जी से अपने अस्पताल के उद्घाटन करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त किया है, उन अस्पतालों पर भी योगी और मोदी के बड़े बड़े बैनर लगे हुए हैं. वह गरीबों के मुफ्त बीमा का पोस्टर हो सकता है. या कोई अन्य पोस्टर बैनर.
अस्पताल में तैनात प्राइवेट गुंडे
अगर किसी अस्पताल में गांव गिरांव से आए किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो अस्पतालों ने उनसे निपटने के लिए कर्मचारी लगा रखे हैं. अगर किसी के परिजन ने रोते बिलखते हंगामा कर दिया तो अस्पताल में तैनात 8-10 स्वस्थ अस्वस्थ युवा उसे घेर लेते हैं. उनके ऊपर चिल्लाना शुरू कर देते हैं और अस्पताल से लाश के साथ भगा देते हैं. तमाम अस्पतालों ने तो निजी गनर और बाउंसर भी रखे हुए हैं.
ऐसी हालत में बेचारा सीएमओ जांच कर रहा होता है कि गड़बड़ी कहां है. सीएमओ का तंत्र खुद चौपट पड़ा हुआ है. सीएमओ ऑफिस के पीछे मेडिकल बोर्ड बैठता है. वहां आपको सहजीविता की पूरी झलक मिलती है. ऑफिस में ऊंघते बीमार जैसे फाइलों और कंप्यूटर पर जूझते कर्मचारी और ढेर सारे कुत्ते मिलेंगे. गंदे से एंट्री के सामने एक तख्त और उस पर कुछ बिछावन मिलेगा. उस कार्यालय की दयनीय दशा देखने के बाद सीएमओ को निश्चित रूप से यह अहसास होता होगा कि रचित हॉस्पिटल या सिटी हॉस्पिटल जो सेवाएं दे रहे हैं, वही बेस्ट और मानकों के अनुरूप हैं और उनकी ओर से वसूले जा रहे चार्जेज मानकों के अनुरूप हैं.

इस बीच अगर कोई मामला थाने में चला जाता है या किसी मर चुके पेशेंट के परिजन जिलाधिकारी या मंत्री तक शिकायत पहुंचा देते हैं, थाने में मामला पहुंचा देते हैं तो संबंधित अस्पताल की एकाध हफ्ते जांच चल जाती है.
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खैर… हाल में महिला की मौत, एफआईआर और जांच के बाद एक से ज्यादा नर्सिंग होम में पंजीकरण कराने वाले डॉक्टरों ने अपने नाम वापस लेने शुरू कर दिए हैं. सीएमओ की ओर से ऐसे डॉक्टरों की सूची जारी होने के बाद ऐसे कुछ डॉक्टर खुद सामने आए हैं, जिनके नाम पर कई अस्पताल चल रहे हैं. हालांकि बीमार चिकित्सा व्यवस्था और लूट का कोई ठोस इलाज नहीं है और सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़, खराब इन्फ्रास्ट्रक्टर के बीच निजी अस्पतालों का धंधा चौचक बना हुआ है.