अनुभव सिन्हा एक शानदार डायरेक्टर हैं जिन्होंने मुल्क़ और आर्टिकल-15 जैसी विचारोत्तेजक और शानदार फिल्में दी हैं। यदि आप उनकी हाल में ही रिलीज़ हुई फ़िल्म “भीड़” को कोरोना की त्रासदी और लॉकडाउन से त्रस्त, सड़क पर आई हुई मज़दूरों की भीड़, जिसने असहनीय और अकल्पनीय कष्ट भोगे, उनके कष्टों और सरकारों की सर्द पड़ी संवेदनशीलता की दस्तानगोई समझ कर देखने जा रहे हैं, तो आप निराश होकर लौटेंगे। हाँ यदि इसे आप लॉकडाउन की पृष्ठभूमि पर बनी एक ऐसी प्रेमकहानी, जिसका लॉक डाउन और कोरोना से कुछ ख़ास लेना देना नही है, यह समझ कर देखने जा रहे हैं, तो यह फ़िल्म ठीक ठाक लग सकती है। मेरी नज़र में तो कोरोना काल का इससे बेहतर चित्रण, मधुर भंडारकर की “इंडिया लॉकडाउन” ने किया था.
अनुभव सिन्हा, अपनी कहानी में, अनापेक्षित रूप से निराश करते हैं। भीड़ देखकर यही प्रतीत होता है कि अनुभव सिन्हा का “आर्टिकल-15” वाला बुखार अभी तक उतरा नही है। भीड़ में भी उन्होंने ऊंची जाति, नीची जाति और समाज मे चल रहे जाति द्वंद को दिखाया है, जो एक छिछली सी प्रेम कहानी के साथ चलता रहता है और कोरोना, लॉकडाउन में भी यही द्वंद कहानी पर हावी रहता है। हालांकि एक फ़िल्मकार की यह स्वतन्त्रता होती है कि वह किसी भी युगान्तकारी घटना को बैकग्राउंड में रखकर, उस बैक ग्राउंड से निरपेक्ष, विषय से एकदम इतर, अपनी रचनात्मकता प्रदर्शित कर सकता है। जैसे की विश्व सिनेमा में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बैकग्राउंड में प्रेमकहानियाँ सुनाती कई फिल्में आईं और सराही भी गईं। विश्वयुद्ध की यंत्रणा झेली हुई पीढ़ियों को बीते 70-80 वर्ष का अंतराल हो चुका, पर जब आप कोरोना महामारी की विभीषिका और लॉकडाउन की यंत्रणा झेली हुई इस पीढ़ी को, इस विषय के नाम पर फ़िल्म दिखाने के लिये हाल में बुलाएंगे, तो उस काल के घावों को लिए लोग, उस विषय पर ही कुछ देखने, उन घावों को सहलवाने की उम्मीद लेकर आएंगे। अचरज़ यह लगता है कि जब कोरोना महामारी में लोग जाति और धर्म को भूल, अपने साझे दुखों में हलकान थे, कैसे अनुभव सिन्हा जी को उस महामारी में भी जातियों का द्वंद नज़र आ गया। हाँ, गोदी और सोशल मीडिया ने हिन्दू-मुस्लिम का रायता अलबत्ता फैलाया था। पर जब दर्शक सरकार और व्यवस्था को, उनकी अपर्याप्त योजना, अक्षमता और सवेंदनहीनता के लिए आइना दिखाने वाली फ़िल्म की अपेक्षा करते हुए फ़िल्म देखने जाते हैं तो भीड़ उन्हें सिर्फ़ निराश ही करती है।
आर्टिकल-15 का हीरो, IPS अफ़सर आयुष्मान खुराना एक ब्राह्मण था जिसे बिना किसी कुंठा के, फ़िल्म की विषयवस्तु के मुताबिक़ संघर्ष करते और उसका हल निकालते हुए दिखाया गया है। इसके विपरीत, भीड़ के शुद्र जाति के नायक राजकुमार राव को, पढालिखा, अपने पैरों पर खड़ा एक पुलिस इंस्पेक्टर होने के बावजूद, इतनी गहरी हीनता की कुंठा में डूबा हुआ दिखाया गया है कि वह कोई हल देता हुआ नही, बल्कि स्वयं हीनता को और गहन करता हुआ दिखता है। गज़ब तो तब लगता है कि वह एक ब्राह्मण मज़दूर, पंकज कपूर के सामने घुटने टेक, हाँथ जोड़कर स्वयं को बेल्ट से मारे जाने के लिये प्रस्तुत करता है जैसे कि उसके पुरखे पीटे जाते थे। यह थोड़ा अटपटा लगता है।
सिनेमानिर्माण की कला के नज़रिए से देखें तो फ़िल्म में कलाकारों का अभिनय, फोटोग्राफी, संगीत, कैनवास बहुत बढ़िया है। ग्रे एंड व्हाइट में बनी फ़िल्म, सुंदर सिनेमाटोग्राफी के लिहाज़ से बढ़िया कही जाएगी।
राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, आशुतोष राणा, आदित्य श्रीवास्तव, दिया मिर्ज़ा सबने बढ़िया अभिनय किया है पर पंकज कपूर अपने बेहतरीन अभिनय की अलग ही छाप छोड़ जाते हैं। फ़िल्म का गीत, संगीत और पार्श्व संगीत बढ़िया है। डॉ सागर द्वारा लिखित “हेराईल बा” बढ़िया बन पड़ा है।
कुल मिलाकर, दर्शकों को यह निराशा ही हाँथ लग सकती है कि जब इतनी बढ़िया स्टारकास्ट, इतना बड़ा कैनवास, इतना बड़ा तामझाम, भीड़ आदि जुटा ही लिया था, तब विषय को टटोलती, गैर जिम्मेदार मीडिया को कटघरे में खड़ा करती और व्यवस्था से आंख में आंख मिलाकर बात करने का साहस करती फ़िल्म क्यों नही बन सकी? हाँ, कुछ जगहों पर यह फिल्म इशारों में इशारों में , कुछ विषयों पर कुछ कहना चाहती है, पर वह पर्याप्त नहीं लगता. दर्शक मेनू में शानदार व्यंजन देखकर कुछ उम्मीद लेकर हाल में जाता है, पर फिल्म समाप्त होते होते अतृप्तता का कुछ यह भाव रह जाता है कि मानो परोसी हुयी थाली सामने से अचानक खींचकर, पांत में से उठा दिया गया हो.
अंत मे, भीड़, भीड़ में ही शामिल एक फ़िल्म है जिसे आप 5 से 2.5 नंबर दे सकते हैं।
– शैलेन्द्र कबीर
यही मै नही लिखना चाहता था। विचार बिल्कुल सेम था, ऐक्सपेक्शन बहुत हाई थी।
पहले दिन पहली शो.. पूरी हाल मे केवल गिन के 10 लोग।
फिर भी उतना निराशा नही हुआ, जितना फिल्म के खत्म होने पर हुई।
Nice commentary on Bheed. Thanks
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